हर कहानी का अपना उद्देश व प्रेरणा होती है हर लेखक का सपना होताहै की उसकी यह करती अधिक लोगो द्वारा पढ़ी व सराही जाये उसकेइसी अभिलाषा को हमने पूर्ण करने की कोशिश की है आशा है आपकोहमारा यह प्रयास पसंद आएगा...! सूरज की किरणें आकाश में अपने पंख पसार चुकी थीं। एक किरण खिड़की पर पड़े टाट के परदे को छकाती हुई कमरे के भीतर आ गई और सामने की दीवार पर छोटे से सूरज की भाँति चमकने लगी। पीले की बदरंग दीवार अपने उखड़ते हुए प्लास्टर को सँभालती हुई उस किरण का स्वागत कर रही थी। बिस्तर पर पड़े-पड़े अनिमेष ने अपनी आँखें खोल कर एक बार उस किरण की ओर देखा और फिर आँखें मूँद कर उस अधूरे सपने की कड़ियों को पूरा करने की उधेड़बुन में जुट गया जिसे वह पिछले काफ़ी समय से देख रहा था, पर सपना था कि अपनी पिछली कड़ियों से जुड़ ही नहीं पा रहा था। दीवार पर पड़ते प्रकाश के बिंब को देखते हुए वह अपने बचपन के उस पड़ाव पर पहुँच गया जब उसका परिवार इलाहाबाद के कटरा मोहल्ले की चूड़ी वाली गली में बने अपने पुश्तैनी मकान में रहता था। वहाँ सब उसे अन्नी पुकारते थे। वह और उसके ताऊजी का बेटा रमन आईने से दीवार पर सूरज की किरणों को चमकाते और फिर उस बिंब को पकड़ने के लिए दौड़ते, पर वह बिंब कभी हाथ में नहीं आता और यदि कभी उनकी नन्हीं-नन्हीं उँगलियाँ रोशनी के उस टुकड़े तक पहुँचती भी तो वह रोशनी उनके हाथों पर बिखर कर रह जाती। फिर भी सूरज के उस बिंब को छूने में जो सुख मिलता वह अतुलनीय था। अनिमेष बिस्तर से उठा और एक बार फिर सूरज की उस किरण को अपने हाथों में कैद करने का प्रयास करने लगा। समय कितनी तेज़ी से बीतता है। रमन का ब्याह हो गया था और उसने वहीं इलाहाबाद में एक मेडिकल स्टोर खोल लिया था। कल का अन्नी आज का अनिमेष भगत बन चुका था। अनिमेष भगत एक बेरोज़गार, जिसने नौकरी के लिए अपने अलग मापदंड बना रखे थे, एक पुत्र जो अब घर से पैसे मँगाने में शर्म का अनुभव करने लगा था, एक गुमनाम लेखक जिसकी रचनाओं को नगर का कोई भी बड़ा पत्र छापने को तैयार नहीं होता था। वास्तव में अनिमेष अपने भीतर छिपे लेखक को अपने सबसे निकट पाता, धीरे-धीरे घर से पैसे माँगने में शर्म आनी ख़त्म सी होती जा रही थी, वैसे भी अब घरवाले पैसे देने में हिचकिचाने लगे थे। वह चार बार माँगता तो कभी एक बार पैसे आते तो कभी वो भी ना आते। बेरोज़गारी तो अपनी आदत ही डाल चुकी थी। वैसे भी वह लेखक ही था जिसकी बदौलत वह अपनी थोड़ी-सी ज़रूरतों को पूरा करने भर के पैसे जुटा पाता। इलाहाबाद से दिल्ली आए उसे लगभग तीन वर्ष बीत चुके थे। नौकरी की तलाश उसे यहाँ खींच लाई थी, उसने सुना था कि दिल्ली में आने वाले वर्षों में दो लाख से भी अधिक लोगों को रोज़गार उपलब्ध होगा। नौकरियाँ थीं अभियंताओं के लिए, बावर्चियों के लिए, मज़दूरों के लिए, तकनीशियनों के लिए, अंग्रेज़ी को अंग्रेज़ों की तरह बोलने वालों के लिए, पर हिंदी के स्नातक के लिए कोई जगह किसी के पास नहीं थी। इधर उधर प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं में कुछ लिख लिखा कर वह अपना जीवन यापन कर रहा था। इस सबके बावजूद नगर में छपने वाले एक साप्ताहिक समाचार पत्र ''उजागर'' में अनिमेष की रचना अवश्य छपती थी। प्रत्येक रविवार को प्रकाशित होने वाले इस पत्र में लेख, कहानी, कविता या जो कुछ भी उसने लिखा होता वह छप जाता और दो सौ रुपए अनिमेष के हाथ पर रख दिए जाते। इस पत्र के संपादक थे श्रीमान राकेश पराशर। अनिमेष आज तक संपादक जी के इस स्नेह को समझ नहीं पाया था, न तो वह उनकी जाति का था, न उनके क्षेत्र से था और न ही संपादक महोदय को कोई लाभ पहुँचाने की स्थिति में ही था, फिर भी उसकी रचनाएँ निर्बाध रूप से छपती आ रही थीं। ऐसा सुनते हैं कि राकेश जी भी बहुत दिनों तक अपनी रचनाओं को छपवाने हेतु इधर उधर भेजते रहे थे और अंतत: थक हार कर उन्होंने प्रिंटिंग प्रेस का काम शुरू किया। काम अच्छा चल पड़ा तो अंदर छिपे लेखक ने एक बार फिर अंगड़ाइयाँ लेना प्रारंभ कर दिया तथा उन्होंने अपने स्वयं के अख़बार ''उजागर'' की नींव रखी। आस-पास के परिचित दुकानदारों से कुछ विज्ञापन मिल जाते और बाकी पैसे वे अपनी जेब से लगाते थे। नए लोगों को लिखने के लिए प्रेरित करने में उन्हें आनंद आता था। सुनते तो ऐसा भी हैं कि आजकल के कुछ प्रतिष्ठित लेखक उनके आँगन से होकर ही अपने लक्ष्य तक पहुँचे हैं परंतु उन लेखकों के नाम किसी को पता नहीं थे। अनिमेष को ऐसा नहीं लगता था कि वह भी दूसरे प्रसिद्ध लेखकों की तरह यहीं से अपने आपको लेखन की दुनिया में सिद्ध कर सकेगा। अनिमेष को कई बार यह सोचकर दुख होता था कि उसकी रचनाओं को बहुत कम लोग ही पढ़ते थे। कलम से क्रांति का जो स्वप्न वह एक अरसे से देखता आ रहा था वह उसको टूटता-सा लगता। ''उजागर'' की कुल दो हज़ार प्रतियाँ छपती थीं जिसमें से अधिकतर आस पास के दुकानदारों में मुफ़्त बाँट दी जातीं और बाकी प्रेस से ही कबाड़ी वाले के पास पहुँच जातीं। स्कूलों के बाहर खड़े फेरीवाले आमतौर पर ''उजागर'' पर ही चने कुरमुरे आदि बेचते थे। कुल सौ-दो सौ प्रतियाँ ही असली पाठकों तक पहुँचतीं जिसमें से अधिकतर मुख्य ख़बरों के आगे कम ही बढ़ते थे। ऐसे में चौथे पृष्ठ पर छपने वाले लेख को कितने लोग पढ़ते होंगे यह कहना कठिन नहीं था। अनिमेष अन्य नामी-गिरामी पत्रों में भी यदा-कदा अपनी रचनाएँ भेजता रहता था। परंतु उन पत्रों ने तो जैसे उसकी रचनाओं को न छापने की कसम खा रखी थी। ''दैनिक प्रकरण'' से कल ही उसका लेख वापस आया था, वह लेख जो उसने हिंदू मुस्लिम एकता पर लिखा था, इसी एकता की कड़ियों में उलझकर एक लिफ़ाफ़े के रूप में उसके सिरहाने पड़ा था। अलसाए हुए अनिमेष ने एक दृष्टि उस लिफ़ाफ़े की ओर डाली, उठकर टूथपेस्ट को अपने ब्रश में लगाया तथा कमरे से बाहर निकल आया। बरामदे में लगे आईने पर जब उसकी नज़र पड़ी तो अपनी आँखों के नीचे उभरती हुई कालिख को देखकर वह एक बार ठिठका और फिर मन ही मन अपने आपसे कुछ कहता हुआ आगे बढ़ा। "उठो भाई एक और दिन तैयार है तुमसे दो-दो हाथ करने के लिए। अभी बाबूलाल भी किराया-किराया चिल्लाता हुआ आ रहा होगा। यहाँ आँखों के नीचे तो ऐसी कालिख जम रही है कि मानो रात भर इन्होंने कोयले की खान में काम किया हो। अम्मा अगर इस हालत में देख लें तो पहचान भी ना पाएँ। चलूँ, राकेश जी को ये लेख देता हूँ जाकर, एक वही हैं जो इसको छाप सकते हैं वरना यदि बाकी पत्रों का बस चले तो हिंदू मुस्लिम एकता को शब्दकोष से ही बाहर करवा दें।" अब तक कम से कम बीस बार वह इसको पढ़ चुका था। पर उसे ऐसा लगता मानो प्रशंसा अथवा प्रतिक्रिया के यह शब्द उसको असीम शक्ति प्रदान कर रहे हों। कभी-कभी तो उसको ऐसा लगता कि यदि यह पोस्टकार्ड उसके पास ना आए तो वह आगे कुछ भी लिख ना पाए। वैसे वह यह भी जानता था कि उसका ऐसा सोचना एक अंधविश्वास से अधिक कुछ भी नहीं था परंतु ऐसा अंधविश्वास जिससे व्यक्ति को प्रेरणा मिलती हो, विश्वास करने योग्य होता है। पोस्टकार्ड के अक्षर-अक्षर को एक बार पुन: अपने मानस में बिठाकर अनिमेष ने अपनी सायकिल उठाई और ''उजागर'' के दफ़्तर की ओर बढ़ चला। कुछ ही समय में अपने लेख को बगल में दबाए वह राकेश जी के सामने खड़ा था। उसने लेख को राकेश जी के आगे बढ़ाया, राकेश ने अनिमेष की आँखों में आँखें डालते हुए कहा, अनिमेष के जीवन में एक और बड़ा ही महत्वपूर्ण प्राणी था, उसका मकान मलिक बाबूलाल जो उसके कमरे के सामने वाले कमरे में ही रहता था। कभी वह किसी से बोलता तो ऐसे मानो कोई बहुत बड़ा एहसान कर रहा हो। उसकी बातचीत को झगड़े में बदलते ज़्यादा समय नहीं लगता था। पिछले चार महीनों में अनिमेष को कई बार बत्ती जलती छोड़ देने की वजह से फटकार पड़ चुकी थी। कमरे का किराया पाँच सौ रुपए था, कमरे के अलावा एक कुर्सी, एक मेज़ और एक तखत भी उस कमरे में पहले से पड़े थे, बिजली का अलग से कुछ नहीं लिया जाता था अत: यदि बाबूलाल बिना मतलब बत्ती जलती देख लेता तो आगबबूला हो उठता। इधर हमारे लेखक बाबू को लिखते-लिखते सोने की आदत थी, तो सामन्यत: कई बार लाईट बुझाना भूल भी जाते थे। बाबूलाल को बीड़ी और शराब पीने की लत थी। शराब पीने के बाद तो कभी-कभी वो बड़ी ऊलजलूल हरकतें करता, कभी किसी के दरवाज़े पर जाकर ज़ोर-ज़ोर से कोई पुराने ज़माने का फ़िल्मी गीत गाता और कभी आसमान की ओर देखकर चाँद तारों को गालियाँ बकता रहता। कई बार वह घर के बाहर खड़े यूकेलिप्टस के पेड़ से चिपक-चिपक कर रोता रहता, ऐसे ही एक दिन उसने अनिमेष को बतलाया कि उसके पिता ने यह वृक्ष उसी दिन लगाया था जिस दिन उसका जन्म हुआ था, इस रिश्ते से वह पेड़ बाबूलाल को अपने जुड़वाँ भाई की तरह लगता था। इसके अलावा भी वह अनेक बेतुकी हरकतें किया करता था। एक दिन शराब के नशे में धुत होकर उसने अपने पड़ोसी के लड़के को बिना बात के ही बहुत पीटा। उस दिन के बाद से आस पास के लोगों ने बाबूलाल का एक प्रकार से बहिष्कार ही करना प्रारंभ कर दिया। उसकी ऐसी ही हरकतों से तंग आकर उसका पुत्र टीटू अपने परिवार के संग एक दूसरे मोहल्ले में रहने लगा था, परंतु बाबूलाल सबसे यही कहते थे कि उसने अपने बेटे और बहू से तंग आकर घर से निकाल दिया है। ऐसे भावों को मन में लिए अनिमेष दफ़्तर से उठा और सीधे बाबूलाल के कमरे की ओर चल पड़ा। बाबूलाल उस समय अपनी बीड़ी जलाने के लिए माचिस ढूँढ रहा था, उसने चुपचाप पैसे लिए तथा फिर माचिस ढूँढ़ने के कर्म में लीन हो गया। अनिमेष अपने कमरे में आया और एक-एक करके सामान रखने लगा। ''मैंने पैसे तो दे ही दिए हैं, अब यदि कल सुबह तक रुक जाऊँ तो कोई ग़लत बात नहीं है। वैसे भी इस कुर्सी से, इस मेज़ से इस तखत से और बाहर लगे इस यूकेलिप्टस से मुझको अपनापन भी मिला है और प्रेरणा भी, भले ही इनके मालिक ने मुझे दुत्कारा हो। अब जो अपने बेटे का न हुआ वह किसी और का क्या होगा। मनुष्य को न जाने किस चीज़ की भूख है और न जाने यह कैसे शांत होगी। बाबूलाल कितना पैसा दबाए बैठा है पर और-और की रट तो जैसे छूटती ही नहीं या फिर शायद मकान मालिक बनने के बाद मानव का स्वभाव ऐसा ही हो जाता है, पता नहीं, अगर वो अपने आपको तीस मार खाँ समझता है तो मैं भी कुछ कम नहीं हूँ, आज नहीं जाऊँगा, कल सुबह ही खाली करूंगा।'' अनिमेष काफ़ी देर तक कुर्सी पर बैठा रहा परंतु कुछ लिख नहीं पाया। बैठे-बैठे ही कब उसकी आँख लग गई उसे पता ही न चला। रात के लगभग दो बजे किसी ने दरवाज़े को ज़ोर से खटखटाया, अनिमेष ने उठकर जब किवाड़ खोला तो देखा कि बाबूलाल सामने खड़ा है, उसका चेहरा पसीने से लथपथ था। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था, पहले भी कई बार कभी खांसी तो कभी ज़ुकाम, कुछ न कुछ होता ही रहता था। बूढ़ी देह थी, ऊपर से बीड़ी पीने का शौक तो रोग कितने दिन दूर रहते। जब भी बाबूलाल को कोई समस्या होती तो वह दौड़ा-दौड़ा अनिमेष के पास ही आता। आज अनिमेष का पारा भी सातवें आसमान पर था लेकिन बाबूलाल को कराहते देख अनिमेष उसे सहारा देकर उसके कमरे तक ले गया, बिस्तर पर लिटा कर पानी पिलाया और बाहर आ गया। सुबह-सुबह अनिमेष डॉ पवार को अपने साथ लेकर आ गया। दरवाज़ा खोलकर जब वह अंदर पहुँचा तो उसने देखा कि बाबूलाल का शरीर अकड़ रहा है। डॉ साहब ने बताया कि बाबूलाल की मौत तो चार पाँच घंटे पहले ही हो चुकी है। अनिमेष ने घड़ी में देखा तो सुबह के साढ़े सात बज रहे थे। बाहर लगे यूकेलिप्टस के पत्ते झर रहे थे। कुछ ही देर में टीटू अपने परिवार के साथ पहुँच गया। उसके आते ही रोना धोना चालू हो गया। अनिमेष स्तब्ध-सा सबकुछ देख रहा था। बाबूलाल के शरीर को बिस्तर से उठाकर ज़मीन पर रख दिया गया। बिस्तर पर पड़ी चादर और गद्दे को भी हटाया गया। चादर के नीचे एक पोस्टकार्ड पड़ा था जिसपर लिखा था कि, टीटू ने पत्र को एक ओर रखा तथा अर्थी तैयार करने लगा। अचानक अनिमेष दहाड़ें मार-मार कर रोने लगा, आस पास के सब लोगों ने उसे सांत्वना देने के अनेक प्रयास किए पर अनिमेष की आँखों से बहती हुई अश्रुधारा रुक ही नहीं रही थी। लोग कह रहे थे कि देखो मकान मालिक और किराएदार में पिता पुत्र-सा स्नेह था, तभी सूरज की एक किरण परदे के पीछे से आई और दीवार पर स्थिर हो गई। कई बार पुतलियों पर ज़ोर डालने के बावज़ूद जब सपना पूरा नहीं हुआ तो उसने अपनी आँखों को दुबारा खोला और दीवार पर पड़ती हुई किरण को देखने लगा। खिड़की से दीवार तक वह किरण वातावरण में उपस्थित छोटे-छोटे रेशों-रजकणों को प्रकाशित करती हुई दीवार पर स्थिर हो रही थी। कमरे का वह वातावरण जो नितांत गतिविधिहीन एवं शांत-सा लग रहा था, एक किरण मात्र के प्रवेश से गतिमान हो उठा था। | |
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Saturday, May 29, 2010
पीस ऑफ़ शाइनिंग
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